Sunday 15 August 2010

कविता

Here is my first try at writing poetry in Hindustani (Hindi + Urdu) which I feel is the lingua franca  of N. India and not the Sanskritised version of Hindi which a few people are trying to popularise now. 
Photo courtesy Mukund P Rao
 
ख्वाहिश

हम चल रहें हैं किस राह पर? 
भूमी और ज़मीन को कर दिया है हमने नष्ट 
बिना पानी के साथ कर रहें है हम कष्ट | 
अपने ज़रूरतों को समपूर्ण करने के ख्वाब में
सभी वृक्षों को हमने काट दिए  
और जानवरों को मार दिए | 

एक महापुरुष ने कहा था 
रखो तराज़ू के एक तरफ़ धरती और दूसरे पे सोना 
छोड़ देंगे हम धरती 
और चुनेंगे हम पैसा और सोना |
छोड़ देंगे हम धरती 
और चुनेंगे हम पैसा और सोना |
क्या हम असल में हैं इतने लालची?
अब  रही नहीं हम में अपने भूमी की फ़िक्र या परवा
बस हमें दिखता  है पैसों का जलवा |

जब हमारा जिस्म जल गया हो
तो इंसान कैसे रहेगा?
जब हमारा जिस्म जल गया हो
तो इंसान  कैसे रहेगा?
(तो  सोचिये फ़िर) जब हम  वातावरण को कर चुके हैं इतना प्रदूषित 
तो ज़मीन पर जीव-जंतु कैसे रहेंगे जीवित |
जब हम  वातावरण को कर चुके हैं इतना प्रदूषित 
तो ज़मीन पर जीव-जंतु कैसे रहेंगे जीवित |
येह तोह खुदा की मेहरबानी है  
कि सब दुर्घटनाएं अभी तक रहीं है सीमित|
पर वक़्त निकलता जा रहा है
और वक़्त-ए-बदलावट है अब
चलो मिले हम सब
अपनाये एक नयी दिशा और दृष्टी |

यह कठिनाई नहीं है सिर्फ़ हिंदुस्तान की अकेली
पर फ़िर भी मुझमे पूरा है विश्वास 
सभी मुल्कों के लोग मिलके करेंगे कुछ खास
और दो सो साल के बाद लोग सुनाएंगे यह पहेली
कि कैसे उनके पूर्वजों ने अपने बुरी आदतों के खिलाफ़ जंग जीत ली |
मुकुंद पालाट राव  ( १५ ऑगस्ट, २०१०)

3 comments:

  1. we just read this to your grandmother and Ammukutty aunty ...we are all very impressed..beautiful.. theme, language.....s.cheriamma

    ReplyDelete